‘फल्क’ शब्द की उत्पत्ति ‘फल निष्पत्तौ’ को ‘‘कृदाघाराच्र्चिफलिभ्यःकः’’ इससे उणादि प्रत्यय ‘कः’ होने पर होती है। जिससे अर्थ हुआ ‘‘ फल देने वाला’’। वहीं ‘फलकी’ शब्द में फलक को इनि प्रत्यय होने पर बना है फलकी, जिसका अर्थ है ‘फलकान्विते’ यानि फल से भरपूर। अमरकोश अथवा नामलिङ्गाऽनुशासन काण्ड ३ के अनुसार –
वार्तं फल्गुन्यरोगे च त्रिष्वप्सु च घृताऽमृते।।(३.३.४९८)
यहां ‘त्रिष्वप्सु’ यानि ‘त्रिषु अप्सु’ में अप्सु अर्थात् जलों में यानि जल सूचक है; जो तीर्थ की ओर संकेत करता है। और हां, शब्द कल्पद्रुम में ही फलकीवन के लिए कहा गया है ‘‘वनरूपतीर्थभेदे’’ अर्थात् वन रूपी तीर्थ स्थान। कुरूक्षेत्र के सात वनों में से एक फलकीवन महान पुण्य प्रदान करने वाला है। वर्तमान में यही फलकीवन फल्गु तीर्थ के नाम से सुशोभित एवं प्रसिद्ध है। फलकीवन (फल्गु तीर्थ) से ही इस गांव का नाम भी फरल पड़ा। इस तीर्थ का वर्णन महाभारत, वामन पुराण में स्पष्ट रूप से मिलता है। इसका वर्णन मत्स्य पुराण तथा नारद पुराण में भी उपलब्ध होता है। महाभारत एवं पौराणिक काल में इस तीर्थ का महत्व अपने चरम उत्कर्ष पर था। महाभारत एवं वामन पुराण दोनों में यह तीर्थ देवताओं एवं ऋषियों की तपस्थली के रूप में जाना गया है। कहा जाता है कि यहां इस वन में श्री फल्क ऋषि तपस्या करते थे; उन्हीं से इस वन का नाम फलकीवन हुआ। वर्तमान में भी यहां उनका भव्य एवं प्राचीन मंदिर भी विद्यमान है।वर्तमान समय में जनमानस श्री फल्क ऋषि को ही श्री फल्गु ऋषि के नाम से जानता है।
श्री फल्क ऋषि जी के संबंध में एक किंवदंती भी सुप्रसिद्ध है। कहा जाता है कि ‘‘उस समय जब कुरूक्षेत्र सात वनों में बंटा हुआ था और नौ नदियों द्वारा पोषित होता था। सात वनों में से एक फलकीवन में ‘श्री फल्क ऋषि’ तपस्या करते थे। ऋषिवर की तपस्या के प्रभाव से यह वन इतना पवित्र था कि दूसरे ऋषि एवं देवगण यहां तपस्या करके अपना अभीष्ट वर प्राप्त करते थे। उनके ही तपस्या काल में गया में गयासुर नामक दैत्य राज्य करता था। गयासुर की यह प्रतिज्ञा थी कि जो उसे शास्त्रार्थ में पराजित कर देगा उसके साथ वह अपनी पुत्री सोमवती का विवाह करेगा। गयासुर से त्रस्त लोग और देवता श्री फल्क ऋषि के पास गए। उन्हें गयासुर की प्रतिज्ञा के बारे में बताया तथा उससे गयासुर से शास्त्रार्थ करने का अनुरोध किया। श्री फल्क ऋषि गयासुर से शास्त्रार्थकरने को तैयार हो गए तथा ‘गया’ जाकर शास्त्रार्थ में गयासुर को पराजित कर किया। इसके बाद प्रतिज्ञा के अनुसार गयासुर ने अपनी पुत्री सोमवती का विवाह ऋषिवर से कर दिया। गयासुर ने श्री फल्क ऋषि को सर्वगुणों से सम्पन्न जानकर सोमवती के साथ-साथ अपनी दो और कन्याओं भोमा तथा गोमा का भी पाणिग्रहण संस्कार भी ऋषिवर के साथ ही कर दिया। इस प्रकार विवाहोपरांत गयासुर ने उपहार में गया जी में पितृतृप्ति हेतु किए जाने वाले श्राद्ध में मिलने वाले पुण्य का वर भी दिया और कहा कि ‘‘हे भगवन् , जो पुण्य जनमानस को गया में पितृकर्म से प्राप्त होता है, वहीं पुण्य फल्कीवन में भी प्राप्त होगा;ऐसा मेरा वरदान है।’’
फल्गु तीर्थ (फल्कीवन) स्थित श्री फल्क ऋषि मंदिर को भगवान गदाधर मंदिर भी कहा जाता है।उन्हें भगवान विष्णु का गयासुर को शांत करने के लिए लिया गया अवतार भी माना जाता है। दरअसल गया बिहार में भस्मासुर के वंशज माने जाने वाले गयासुर वहां राज्य करते थे।
वायु पुराण के अंतिम अध्यायों में एक कथा के अनुसार गय नामक विशाल शरीरधारी असुर था। किन्तु वह भक्त प्रह्लाद की तरह दैत्यवंश में उत्पन्न होकर भी उच्च कोटि का भक्त था।एक बार गयासुर ने कोलाहल पर्वत पर घोर कठोर तप किया। गयासुर से भगवान विष्णु ने पूछा, ‘तुम किसलिए तप कर रहे हो? हम तुम से संतुष्ट हैं, वर माँगो।‘ गयासुर ने कहा- ‘मेरी इच्छा है कि मैं सभी देव, द्विज, यज्ञ, तीर्थ, ऋषि, मन्त्र और योगियों से बढ़कर पवित्र हो जाऊँ।‘ भगवान ने कहा-तथास्तु। इसके बाद भक्तराज गया को जो भी देखता या स्पर्श करता उसका पाप-ताप नष्ट हो जाता। इस प्रकार ब्रह्मा जीसृष्टि की व्यवस्था भंग होने गयी।
ब्रह्मा जीने भगवान शिव के साथ श्री हरि विष्णु से इस समस्या के समाधान के लिए निवेदन किया। श्री हरि ने ब्रह्मा जी से कहा कि आप गयासुर से यज्ञ के लिए उसका शरीर मांगे। तब ब्रह्मा जी गया के पास गए। उन्होंने कहा – ‘ हे गया! मुझे यज्ञ करना है। इसके लिये मैंने सारे तीर्थों को ढूँढ़ डाला, परंतु मुझे ऐसा कोई तीर्थ नहीं प्राप्त हुआ जो तुम्हारे शरीर से बढ़कर पवित्र हो, अतः यज्ञ के लिये तुम अपना शरीर दे दो।‘ यह सुनकर गयासुर बहुत प्रसन्न हुआ और अपना शरीर देने के लिए उत्तर की तरफ पांव और दक्षिण की ओर मुख करके कोलाहल पर्वत पर लेट गया। किन्तु गया का शरीर अभी चलायमान था। गयासुर की चंचलता को स्थिर करने के लिए ब्रह्मा जी के सारे प्रयास असफल रहे। अंत में श्री हरि स्वयं गदाधर रूप में गया के सिर पर रखी शिला पर विराजमान हुए, जिससे गयासुर स्थिर हो गया।
भगवान विष्णु का निवास गयासुर को अधिक अभीष्ट था। जब उसके शरीर पर भगवान विष्णु गदाधर रूप में स्थित हो गये तो गयासुर के शरीर की हलचल बंद हो गई। भक्तराज गयासुर चाहता था कि उसके शरीर पर सभी देवताओं का वास हो।तब श्री हरि ने वरदान दिया कि आज से यह स्थान; जहां तुम्हारे शरीर पर यज्ञ हुआ है वह तुम्हारे नाम से ही जाना जाएगा और यह स्थान मुक्तिदायक होगा। वायु पुराण के १०५वें अध्याय में वर्णित है-
गयासुरस्तपस्तेपे ब्रह्मणा क्रतवेऽर्थितः।
प्राप्तस्य तस्य शिरसि शिलां धर्मो ह्यधारयत्।।५।।
तत्र ब्रह्मऽकरोद्यागं स्थितोश्चापि गदाधरः।
फल्गुतीर्थादिरूपेण निश्चलार्थमहर्निशम्।।५।।
अर्थात् ‘‘गयासुर के द्वारा भगवान ब्रह्म के अनुरोध पर तपस्या की गयी। गया के सिर पर ब्रह्म जी ने यज्ञ सम्पन्न किया। वहां गया में ब्रह्मादि देवताओं के साथ भगवान विष्णु गदाधर रूप में फल्गु आदि तीर्थों के साथ रात-दिन उपस्थित रहते हैं।’’
गया में पिंड दान पाकर पितर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। यहाँ पर स्वयं माता सीता ने अपने ससुर महाराज दशरथ का पिंड दान किया था।वायु पुराण में वर्णित उपरोक्त प्रसंग में फल्गु नदी अथवा फल्गु तीर्थ का वर्णन स्पष्ट मिलता है वहीं भगवान गदाधर भी फल्गु नाम से विराजमान कहे गए हैं। गयासुर की नगरी गया जिस नदी के किनारे बसी है उसका नाम फल्गु है। और तो और आपको जानकर हैरानी होगी की गयासुर को युद्ध में हराने वाले भगवान विष्णु गया में फल्गु अथवा भगवान गदाधर के रूप में प्रसिद्ध हैं और इसी नाम से वहां विराजमान हैं।
पुराणों में वर्णित फलकीवन के महत्व पर दृष्टिपात करते हैं। इस तीर्थ की महत्ता का वर्णन महाभारत वन पर्व में तीर्थ यात्रा प्रसंग के अन्तर्गत स्पष्ट रूप से मिलता है:-
ततो गच्छेत राजेन्द्र फलकीवनमुत्तमम्।
तत्र देवाः सदा राजन्फलकीवनमाश्रिताः।।३-८१-८६॥
तपश्चरन्ति विपुलं बहुवर्षसहस्रकम्।
दृषद्वत्यां नरः स्नात्वा तर्पयित्वा च देवताः।।३-८१-८७।।
अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं विन्दति भारत।
तीर्ते च सर्वदेवानां स्नात्वा भरतसत्तम।।३-८१-८८।।
अर्थात् ‘‘तत्पश्चात् हे राजन्! उत्तम फलकीवन में जाना चाहिए। वहां देवता सदा फलकीवन के आश्रय में रहते हैं। वहां देवताओं के द्वारा हजारों वर्षों तक कठोर तपस्या की गई है। मनुष्य को दृषद्वती में स्नान करके देवों का तर्पण करना चाहिए। ऐसा करने से अग्निष्टोम व अतिरात्र दोनों यज्ञों का फल प्राप्त होता है और स्नान करने से सभी देवता अथवा पितर तर जाते हैं ।’’ वहीं वामन पुराण के ३६वें अध्याय में फलकीवन के महत्त्व का वर्णन और अधिक स्पष्ट रूप में किया गया है:-
ततो गच्छेत विप्रेन्द्र फलकीवनमुत्तमम्।
यत्र देवाः सगंधर्वाः साध्याश्च ऋषयः स्थिताः।
तपश्चरन्ति विपुलं दिव्यं वर्षसहस्रकम्।।४५।।
दृषद्वत्यां नरः स्नात्वा तर्पयित्वा च देवताः।
अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं विन्दति मानव।।४६।।
सोमक्षये च सम्प्राप्ते सोमस्य च दिने तथा।
यः श्राद्धं च मत्र्यस्तस्य पुण्य फलं श्रृणु।।४७।।
गयायां च यथा श्राद्धं पितृन्प्रीणाति नित्यशः।
तथा श्राद्धं च कर्तव्यं फल्कीवनमाश्रितैः।।४८।।
मनसा स्मरते यस्तु फलकीवनमुत्तमम्।
तस्यापि पितरस्तृप्तिं प्रयास्यन्ति न संशयः।।४९।।
अर्थात् ‘‘तत्पश्चात् देवता, गन्धर्व, साध्य एवं ऋषि लोगों के दिब्य निवास वाले उस उत्तम फलकीवन में जाना चाहिए जहां देव, गन्धर्व, साध्य, सिद्ध एवं ऋषि कठोर एवं दीर्घकालीन तपस्या में लीन रहते हैं। दृशद्वती में स्नान करके और देवों का अथवा पितरों का तर्पण करने से अग्निष्टोम, अतिरात्र दोनों यज्ञों का फल प्राप्त होता है। अमावस्या (सोमक्षय) होने पर सोमवार के दिन जो मनुष्य पितरों का श्राद्ध करता है, उसका फल सुनो, गया जी में किया हुआ श्राद्ध जिस प्रकार से नित्य ही पितृगण (पितरों) को प्रसन्न करता है उसी प्रकार फलकीवन में रहकर किया गया श्राद्ध प्रसन्नता देता है। जो मन से भी उत्तम फलकीवन का स्मरण करता है, उसके भी पितर तृप्ति को प्राप्त कर लेते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है।’’
वर्तमान समय में फलकीवन के फल्गु तीर्थ पर श्री फल्क ऋषि जी का एक प्राचीन मंदिर है। जिसमें महर्षि फल्क की संगमरमर की एक भव्य प्रतिमा स्थापित है। जिसकी देखभाल वंश परम्परा के अनुरूप वर्तमान में पंडित श्री जयगोपाल शर्मा कर रहे हैं। मंदिर परिसर के दक्षिण-पश्चिम में एक विशाल सरोवर है। लाखों श्रद्धालु इस उक्तयोग के प्राप्त होने पर यहां पितरों के निमित श्राद्ध करते हैं। यहां स्थित सरोवर की लम्बाई 800 फुट और चैडाई 300 फुट है। जिसके आकार की दृष्टि से लगभग दोगुना करने का कार्य सरकार द्वारा किया जा रहा है। इस पावन तीर्थ पर फल्क ऋषि जी के मन्दिर के अलावा इस प्रसिद्ध तीर्थ पर कई सुन्दर मन्दिर हैं। यहां सरोवर के घाट के पास अष्टकोण आधार पर निर्मित 17वीं शताब्दी की मुगल शैली में बना शिव मन्दिर है जो लगभग 30 फुट ऊंचा है। मुगल शैली में एक और शिव मन्दिर है जो लगभग 20 फुट ऊंचा है तथा आकार में वर्गाकार है। वर्ग की एक भुजा 9 फुट 6 इंच है। यहीं एक अन्य मन्दिर जो राधा-कृष्ण का भी है जो नागर शैली में बना हुआ है। जिसका शिखर शंकु आकार का है। इन सभी उपरोक्त वर्णित मन्दिरों में निर्माण लाखौरी ईटों से किया गया है एवं परवर्ती काल में इनका जीर्णोद्धार आधुनिक ईटों के द्वारा किया गया है। घाट के पास ही एक अत्यन्त प्राचीन वट वृक्ष है। जिसे लोग श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। यहीं आधुनिक शिव मन्दिर भी है। मन्दिर में शिवलिंग के साथ नन्दी, पार्वती, गणेश व शिव की संममरमर की प्रतिमाएं है। इस मन्दिर के समीप ही दुर्गा देवी का एक मन्दिर है जिसके गर्भगृह में दुर्गादेवी के साथ भगवान शिव की भी संगमरमर की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। यह सम्पूर्ण तीर्थ 15 एकड़ के विस्तृत भू-भाग में फैला हुआ है। मेले के समय विस्तृत भू-खण्ड मेले के उद्देश्य से अधिग्रहीत किया जाता है।
हरियाणा प्रदेश के कैथल जिले के गांव फरल में स्थित यह तीर्थ स्थान कैथल से 25 कि.मी.,कुरूक्षेत्र से 27 कि.मी.,और पेहवा से 20 कि.मी. ढाण्ड-पूण्डरी मार्ग पर लगभग दोनों के मध्य स्थित है।नजदीक के रेलवे स्टेशन पेहोवा रोड, कैथल और कुरुक्षेत्र हैं। यह तीर्थ स्थान नई दिल्ली से 188 कि.मी. और चंडीगढ से 115 कि.मी. दूर है। जबकि इंदिरा गांधी नई दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट से दूरी 197 कि.मी. है।
कुरूक्षेत्र का फलकीवन सरस्वती और दृषद्वती के जल द्वारा पोषित होने के कारण परम पवित्र माना जाता है।
पितृ तृप्ति प्रदान करने वाले फलकीवन की महता का वर्णन फल्गु तीर्थ के साथ ही समाप्त नहीं होता। सभ्यता की उत्पति एवं विकास में इस भूमि का अत्यधिक महत्त्व है।यहां सरस्वती, दृषद्वती, आपगा नदियों के तटों पर यज्ञाग्नि प्रज्वल्लित की गई –
‘ दृषद्वत्यां मानुष आपगायां सरस्वत्यां रेवदग्ने दिदीहि।
’ऋग्वेद (३.२३.४)
भारतवर्ष की पवित्र नदियों में दृषद्वती का नाम आदर सहित लिया जाता है। दृषद्वती एक ऐसी नदी का नाम है जिसका उल्लेख शास्त्रों और पुराणों में गंगा तथा सरस्वती जैसी पवित्र एवं प्रसिद्ध नदियों के साथ किया गया है। इस नदी का प्रवाह मार्ग कौल से होते हुए फल्कीवन (फरल) रहा है। हालांकि वर्तमान समय में दृषद्वती के बहने के मार्ग के अवशेष मात्र शेष है। जो फरल गांव की पूर्व दिशा में स्थित हैं।ब्रह्माण्ड पुराण के पूर्व भाग में भारतदेश के बारे में प्राप्त वर्णन में भी लिखा गया है-
गोमती धूतपापा च बुद्बुदा च दृषद्वती।
कौशिकी त्रिदिवा चैत्र निष्ठिवी गंड़की तथा।।२७।।
सरस्वती के साथ-साथ दृषद्वती ही वह प्रसिद्ध नदी है जिसने कुरूक्षेत्र धरा को गरिमा प्रदान की है। नारद पुराण के उत्तरार्ध के अध्याय ६४ में कहा गया है –
सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदंतरम्।
तं देवसेवितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते।।६४.६।।
अर्थात् ‘‘देवनदियों सरस्वती और दृषद्वती के बीच का स्थान जिसका देवता सेवन करते हैं, को ब्रह्मावर्त यानि कुरूक्षेत्र कहा जाता है। सरस्वती एवं दृषद्वती जैसी पवित्र नदियों की यह धरा परम पवित्र है।’’ वामन पुराण के अनुसार कुरूक्षेत्र की पवित्र नदियों का वर्णन करते हुए यह भी कहा गया है-
दृषद्वती महापुण्या तथा हिरण्यवती।
वर्षाकालवहाः सर्वां वर्जयित्वा सरस्वतीम्।।
(वामन पुराण-३४/८)
अर्थात् ‘‘महापुण्या दृषद्वती व हिरण्यवती हैं। सरस्वती के अतिरिक्त शेष सभी नदियां वर्षाकाल में ही बहती हैं।’’ मत्स्य पुराण खण्ड-१ में श्राद्धयोग्य तीर्थों का वर्णन करते हुए महामुनि व्यास जी ने पवित्र नदियों के बारे में लिखा है-
यमुना देविका काली चन्द्रभागा दृषद्वती।
नदी वेणुमति पुण्या परा वेत्रवती तथा।।
पितृणां बल्लभाः ह्येताः श्राद्धेकोटिगुणाः मताः।
जम्बूमार्ग महापुण्यं यत्र मार्गो हि लक्ष्यते।।
(मत्स्य पुराण-१७/२०-२१)
अर्थात् ‘‘यमुना, देविका, काली, चन्द्रभागा, दृषद्वती, वेणुमति तथा परम पुण्यमयी वेत्रवती नदियां पितरों को बहुत प्यारी हैं और श्राद्ध में करोड़ों गुणा पुण्य देने वाली हैं। जम्बू मार्ग महापुण्यदायी है जहां मार्ग (मोक्ष मार्ग) दिखाई पड़ता है।‘’ अतः फलकीवन क्षेत्र में दृषद्वती महापुण्यदायी नदी है; इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है।
फल्गु तीर्थ गांव फरल से 2 कि0मी0 के सम्पर्क मार्ग द्वारा पणिश्वर तीर्थ पर पहुंचा जा सकता है। यह तीर्थ पवन पुत्र हनुमान से संबंधित है; जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट भी है।
इस तीर्थ पर श्री हनुमान जीका मंदिरव एक सुंदर सरोवरस्थित है।फलकीवन में पणिश्वर तीर्थ की भी उपस्थिति वामन पुराण और महाभारत में कही गयी है। महाभारत के अनुशासन पर्व के दसवें अध्याय में पाणिखात के नाम से एक तीर्थ उल्लेख है। जिसके बारे में धारणा है कि वही पाणिखात पणिश्वर है। क्योंकि महाभारत के वन पर्व में फलकीवन के वर्णन में इसके लिए लिखा है। जिससे इसके फलकीवन में होने की पुष्टि होती है। महाभारत के वन पर्व के अनुसार –
गोसहस्रस्य राजेन्द्र फलं विन्दति मानवः।
पाणिखाते नरः स्नात्वा तर्पयित्वा च देवताः।।3-81-89।।
अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं विन्दति भारत।
राजसूयमावाप्नोति ऋषिलोकं च विन्दति।।3-81-90।।
भावार्थ है कि इस तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को एक हजार गाय दान करने के समान फल मिलता है। अग्निष्टोम व अतिरात्र यज्ञों का फल प्राप्त होता है। कहा गया है कि जो मनुष्य पणिश्वर तीर्थ में पितृ-तर्पण करता है वह राजसूय यज्ञ के फल का उपयोग करता है। पाणिखात के विषय में वामन पुराण में कहा गया है –
पाणिखाते नरः स्नात्वा पितृन् संतप्र्य मानवः।
अवाप्नुयाद् राजसूयं सांख्ययोगं च विदन्ति।।36.51।।
अर्थात् ‘‘पाणिखात में स्नान करने के बाद पितरों का तर्पण करने से मनुष्य राजसूय यज्ञ का पुण्य और सांख्ययोग को प्राप्त कर लेता है।’’ पाणिखात के विषय में ब्रह्मा पुराण में वर्णित है-
‘पाणिखातं मिश्रकं च मधुवटमनोजवौ।’
(ब्रह्माण्ड पुराण: 25/42)
इस पणिश्वर तीर्थ पर वर्तमान में श्री हनुमान जी का भव्य मंदिर है जिसमें बजरंगबली की सुदंर प्रतिमा है। इस श्रेणी में महाभारत व वामन पुराण के अनुसार दो और तीर्थ सुमहत् तीर्थ व मिश्रक तीर्थ भी फलकीवन में माने गए हैं।