कुरूक्षेत्र की पावन भूमि पर उपरोक्त तीर्थों में प्रमुखता से जिनकी महता का वर्णन होता है उनमें से कुछ का वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है। जिनका नाम प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों में लिया जाता है। इसका प्रारंभ हम कुरूक्षेत्र के चार द्वारपालों अथवा यक्षों से करते और इस दिशा में आगे बढ़ते हैं –
वामन पुराण और महाभारत के अनुसार उत्तर-पूर्व दिशा में तरंतुक या रंतुक यक्ष (बीड़ पीपली के पास) स्थित है। यह स्थान कुरूक्षेत्र से लगभग 3 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इसकी गणना कुरूक्षेत्र के चार यक्षों में से एक के रूप में होती है। यहां सरस्वती का वास है, ऐसा भी माना गया है और यहां से सरस्वती कुरूक्षेत्र में प्रवेश करती है। यथा –
तत्र सा रंतुकं प्राप्य पुण्यतोया सरस्वती।
कुरूक्षेत्रं समाप्लाव्य प्रयाता पश्चिमां दिशम्।।
(वा.पु.-३३.२)
अर्थात् ‘‘ऐसा सुनकर वहां वह पुण्यसलिला सरस्वती द्वैतवन से रंतुक को प्राप्त करके वेग के साथ कुरूक्षेत्र में प्रवेश करती है और पश्चिम दिशा की ओर बढ़ती है।’’
पंजाब और हरियाणा दोनों का मिला-जुला सांस्कृतिक स्थान है-बहर। यह पटियाला से 40 कि.मी. और कैथल से उतर पश्चिम में 24 कि.मी.की दूरी पर स्थित है। कुरूक्षेत्र से पश्चिम में अरंतुक यक्ष (कैथल में बेहर गांव के पास) गांव बहर में स्थित है। बहर गांव में उतर पश्चिम में स्थापित पूर्ण परिसर में कई देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। जिनमें से भगवान विष्णु की मध्यकालीन प्रतिमा विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।यह मूर्ति बालुका पत्थर से बनाई गई है। चैत्र अमावस्या के दिन यहां विशाल मेले का आयोजन होता है।ऐसा माना गया है कि इन दिनों यहां सरस्वती का वास होता है।
कुरूक्षेत्र से दक्षिण–पश्चिम में रामहृद यक्ष जिला जीन्द में रामराय के पास स्थित है। इसकी गणना भी कुरूक्षेत्र के चार यक्षों में से एक के रूप में होती है। यहां भी सरस्वती का निवास है, ऐसा माना गया है और मार्कण्डेय ने सरस्वती से रंतुक यक्ष से चलकर यहां रामहृद तीर्थ/यक्ष स्थल, रामराय तक चलने का अनुरोध किया था।
कुरूक्षेत्र के दक्षिण पूर्व में मचक्रुक यक्ष जिला पानीपत में सींख के पास) स्थित है। महाभारत के शल्य पर्व के 54 वें अध्याय में भी कुछ ऐसा ही वर्णित है –
तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं रामहृदानां च मचक्रुकस्य च।
एतत्कुरुक्षेत्रसमन्तपञ्चकं प्रजापतेरुत्तरवेदिरुच्यते।।५४-९-२८।।
अर्थात् तरंतुक एवं अरंतुक इन दोनों स्थानों के बीच स्थित तथा रामहृद और मचक्रुक के मध्य स्थित (भू–भाग) यह समन्तपंचक कुरूक्षेत्र पितामह (प्रजापति ब्रह्म) की उत्तरवेदी कहा जाता है।’’
कुरूक्षेत्र के जिन स्थानों की प्रसिद्धि संपूर्ण विश्व में फैली हई है उनमें ब्रह्मसरोवर सबसे प्रमुख है। इस तीर्थ के विषय में महाभारत तथा वामन पुराण में भी उल्लेख मिलता है–
आद्यंब्रह्मसरःपुण्यंततोरामहृदःस्मृतः।
अर्थात् सबसे पहले पुण्यवान ब्रह्मसरोवर फिर रामहृद को याद करना चाहिए। कुछ ऐसा ही वामन पुराण में भी वर्णित है–
ब्रह्मवत्र्ते नरः स्नात्वा ब्रह्मज्ञानसमन्वितः।
भवते नात्र संदेहः प्राणान् मुंचति स्वेच्छया।।
जिसमें इस तीर्थ को परमपिता ब्रह्म जी से जोड़ा गया है ।
सूर्यग्रहण के अवसर पर यहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है।इस अवसर पर लाखों लोग ब्रह्म सरोवर में स्नान करते हैं।कई एकड़ में फैला हुआ यह तीर्थ वर्तमान में बहुत सुदंर एवं सुसज्जित है।कुरूक्षेत्र विकास बोर्ड के द्वारा बहुत दर्शनीय रूप प्रदान किया गया है तथा रात्रि में प्रकाश की भी व्यवस्था की गयी है।
स्थानेश्वर महादेव मंदिर का नाम कुरूक्षेत्र के मन्दिरों में आदर के साथ लिया जाता है इसके आधार पर ही यहां का नाम थानेसर पड़ा है। इस स्थान पर भगवान शिव स्थाणु के रूप में भजे जाते हैं । यह स्थान भगवान षिव के प्रिय 68 स्थानों में से सर्वप्रिय 8 स्थानों में से एक माना जाता है; ऐसा स्कन्ध पुराण में वर्णित है। नारद पुराण में वर्णित है –
सरः प्रवेशात्संप्राप्तं स्थाणुत्वं शंभुनापि च ।।
पितुर्वधाच्च तप्तेन पशुरामेण भामिनि।।
कुरूक्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध तीर्थ–स्थानों में सन्निहित सरोवर भी बहुत महत्व रखता है। कुरूक्षेत्र में कैथल मार्ग पर श्री कृष्ण संग्रहालय के पास स्थित है तथा मुख्य मार्ग पर इसका विशाल द्वार बना है। कहा जाता है कि यहां पर युद्ध के बाद पांडवों ने सभी दिवंगतों की मुक्ति के लिए पिंड–दान आदि कार्य किया था। सन्निहित सरोवर के संबंध में नारद पुराण में वर्णित है –
सरः संनिहितं तच्च ब्रह्मणा निर्मितं पुरा।।
अथैषा ब्रह्मणो वेदी दिशमंतरतः स्थिता।।
इसकी महत्ता पर वामन पुराण में वर्णित है कि सूर्यग्रहण के अवसर पर यहां पिंड़ दान यानि श्राद्ध से बहुत पुण्य मिलता है। वर्तमान में यहां सभी देवी–देवताओं के मंदिर स्थित हैं। इसके पास ही में प्राचीन लक्ष्मी–नारायणमंदिरभीस्थितहैं।
कुरूक्षेत्र से पेहवा मार्ग पर ज्योतिसर से कुछ पहले ही मुख्य मार्ग से जुड़ा हुआ एक मार्ग हमें दयाल पुरागांव ले जाता है जहां स्थित है– बाण–गंगा। यहां शर–शैय्या पर लेटे भीष्म पितामह को प्यास लगने पर अर्जुन ने अपने बाण द्वारा धरती से जल निकाल कर पिलाया था। वर्तमान समय अर्जुन के बाण लगने वाले स्थान पर एक कुएं का निर्माण किया गया है तथा हनुमान जी की विशाल प्रतिमा के साथ–साथ यहां शर–शैय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह की मूर्ति है।
कुरूक्षेत्र में स्थित श्री देवीकूप (भद्रकाली) मंदिर मां सती के बावन शक्तिपीठों में शोभायमान है। शास्त्रानुसार दक्ष–यज्ञ में अपने पति भगवान शंकर की निन्दा व अपमान देख–सुनकर भगवती सती ने अपने प्राणों को त्याग दिया। भगवान शिव उनके शव को हृदय से लगाए उन्मत्त की भांति ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाने लगे। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से महाशक्ति के निवास स्थान मृत शरीर को बावन भागों में विभाजित कर लोक कल्याण के लिए पावन शक्तिपीठों के रूप में प्रतिष्ठित किया। नैना देवी, कामाख्या देवी, ज्वाला जी इत्यादि सभी बावन शक्ति पीठ मां के प्रिय निवास स्थल हैं।
हरियाणा में एक मात्र शक्तिपीठ श्री देवीकूप भद्रकाली मंदिर है। इस मन्दिर में रखा सती जी का दायां टकना बार–बारइतिहासकादोहराताहै।इस शक्तिपीठ में महाभारत के युद्ध से पूर्व पांडवों ने विजय के लिए मां भद्रकाली का पूजन किया था।श्री कृष्ण और बलराम कामुण्डन संस्कार भी इसी मन्दिर में हुआ।इस मन्दिर में आने वाले हर श्रद्धालु की मनोकामना मांभद्रकाली पूरी करती है।
संपूर्ण विश्व में भारत श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञान के लिए प्रसिद्ध है। गीता का ज्ञान आध्यात्मिक क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता का नाम आते ही आपको याद आ गया होगा श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के 47वें श्लोक, जिसमें भगवान श्री कृष्ण कहा था –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।
ज्योतिसर नामक स्थान पर अर्जुन को गीता का उपदेश दिया गया। यहां आज भी एक वृक्ष है जिसे गीता–ज्ञान का साक्षी माना जाता है। इसके पास ही एक ऐसा शिवलिंग है जिस पर कई प्रकार के प्रहारों के चिह्न भी हैं। जिससे अनुमान लगाया जाता है कि यह भारत पर हुए विदेशी आक्रमणों के दौरान शत्रुओं के द्वारा किया गया कार्य है।इसके अतिरिक्त महाभारत से संबंधित अनेक चित्रों की झांकी भी यहां प्रदर्शित है। ज्योतिसर को सुदंरता और पर्यटन में अहम् स्थान प्रदान करने के लिए एक कृत्रिम झील का निर्माण भी यहां कुरूक्षेत्र विकास बोर्ड द्वारा किया गया है।
कुरूक्षेत्र से 25 कि0मी0 के दूरी पर उत्तर पश्चिम में एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है पेहवा। जिसकी महत्ता के संदर्भ में वामन पुराण में लिखा है –
तस्माद्गच्छतपुण्यंतत्कुरुक्षेत्रंमहाफलम्।
तत्र पृथूदके तीर्थे पूज्यन्तां पितरोऽव्ययाः।। २१
यहां सप्त सरस्वती का संगम होने के कारण सरस्वती तीर्थ है। इस स्थान को श्राद्ध आदि कर्म के लिए भी विशेष दर्जा दिया गया है तथा संपूर्ण भारत में ही नहीं अपितु विश्व भर से श्रद्धालु श्राद्धकर्म हेतु यहां आते हैं। पृथूद्क शब्द से इस स्थान का नाम पेहवा पड़ा है। यहां पर निर्मित सरस्वती तीर्थ में लाखों लोग अमावस्या के अवसर पर स्नान करते हैं तथा पितरों के निमित श्राद्धादि कार्य करते हैं। इसके बारे में महाभारत और पुराणों में विषद् जानकारी प्राप्त होती है।नारद पुराण के अनुसार –
लोलाकं जंबुमार्गे च सोमतीर्थं पृथूदके ।।
उत्पलावर्तके चैव पृथुतुंगे सकुब्जके।।६०-२५।।
कैथल से उत्तर पूर्व में स्थित इस तीर्थ का बहुत महत्व है।इसके एक ओर पार्क झील के रूप में इसे विकसित किया गया है तथा इसका दूसरा रूप अभी तक उपेक्षित है।वामन पुराण में बताया गया है कि अगर कोई व्यक्ति इस स्थान पर तर्पण करके भगवान शिव को प्रणाम करने के बाद तीन चल्लू पानी पिता है, वह केदार तीर्थ पर जाने का फल प्राप्त कर लेता है –
कपिलस्थेति विख्यातं सर्वपातकनाशनम्।
यस्मिन् स्थितः स्वयं देवो वृद्धकेदारसंज्ञितः।।
पु ३६-१४
कपिष्ठलस्य केदारं समासाद्य सुदुर्लभम्।
अन्तर्धानमवाप्नोति तपसा दग्धकिल्विषम् ।।
महावनपर्व ८३-७४
यहां एक शिव मन्दिर बना हुआ है जो अष्ट कोणीय है।यहां बने सरोवर की बुर्जियां भी अष्टकोणीय आकार लिए हैं।वामन पुराण में ऐसा भी कहा गया है कि कपिस्थल नामक तीर्थ में वृद्ध केदार नामक भगवान स्वयं विराजमान हैं।
कैथल के पश्चिम में एक प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर है ग्यारह रूद्री। आज यह मन्दिर पूर्णत या आधुनिक रूप से विकसित किया जा चुका है। जिसका प्रवेश द्वार बहुत ही सुन्दर दिखाई पड़ता है। इस मन्दिर में ग्यारह रूद्रों की स्थापना की गई है। जिनके विषय में महाभारत में वर्णित उल्लेख के अनुसार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र जो महान ऋषि थे मृगव्याध, सूर्प, निऋति, पिनाकी, अहिवुथ, अजैकपाद, दहन, ईश्वर, कपाली, स्थाणु और भव। महाभारत में लिखा है:-
एकादशसुताः स्थाणोः ख्याताः परमतेजसः।
मृगव्याधश्चसर्पश्च निऋतिश्चमहायशाः।
अजैकपादहिर्बुधन्यः पिनाकी च परंतप।
दहनोथेश्वरश्चैव कपाली च महाधुनिः।
स्थाणुर्भवश्च भगवान् रूद्रा एकादशस्मृताः।(महा.आदिपर्व६६/१-३)
ये एकादश ही रूद्रों के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं। इस मन्दिर में जलहरी में ग्यारह रूद्र स्थापित किए गए हैं। मन्दिर के दक्षिण में सर्वदेव नामक तीर्थ है। जिसे सकलसर भी कहा गया है।
कैथल से नरवाना–हिसार मार्ग पर कैथल से 25 कि0मी0 की दूरी पर कलायत गांव है। जिसका सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत महत्त्व है। यहां कपिल मुनि नाम से एक प्रसिद्ध तीर्थ है। जिसका शास्त्रों में भी उल्लेख किया गया है। इस तीर्थ के किनारे कात्यायनी मन्दिर, श्री लक्ष्मी नारायण मन्दिर स्थित हैं। इनके अतिरिक्त लगभग 7 वीं शताब्दी में पंचरथ शैली में बना हुआ एक शिव मन्दिर है।जहां प्रत्येक महीने की पूर्णिमा को एवं विशेष रूप से वर्ष में एक बार कार्तिक मास में पूर्णिमा के दिन मेला लगता है। ऐसी मान्यता है कि परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्र कर्दम ऋषि और महाराज मनु की पुत्री देवहुति की 9 कन्या ओं के बाद अवतार के रूप में कपिल का दसवें स्थान पर जन्म हुआ था।
कपिल मुनि तीर्थ के बारे में एक और किंवदन्ती प्रसिद्ध है जिसमें कहा जाता है कि राजा शल्यवान रात में मृतक के समान हो जाते थे और सुबह वह ठीक हो जाते थे। एक बार शिकार के समय अनजाने में कपिल मुनि तीर्थ में तीर मार बैठे। जब वह इस तीर को निकालने लगे तो उसका हाथ कपिल मुनि तीर्थ की मिट्टी से छू गया। जिससे उनके हाथ की वह अंगुलियां रात भर सक्रिय रहीं जो मिट्टी से छू गई थी। इससे प्रभावित होकर राजा और रानी ने अगले दिन इस तीर्थ में स्नान किया जिससे वह स्वस्थ हो गए।इसी वजह से राजा शल्यवान ने यहां मन्दिरों का निर्माण करवाया था।उनके समय की एक चौखट आज भी विद्यमान है।
भक्त शिरोमणि पूण्डरीक के नाम से बना है पूण्डरी। यह तीर्थ स्थान पूर्व दिशा में कैथल से 16 km की दूरी पर स्थित है।लोक किंवदन्तियों के अनुसार भक्त पूण्डरीक तपस्या करते करते भगवान के अंश में मिल गए थे। अन्त में उनका निष्पाप शरीर श्याम वर्ण का हो गया तथा 4 भुजाएं और हाथ में शंख, चक्र, गदा और पदम् आ गए थे। स्वयमेव उनके वस्त्र पीले रंग के हो गए और मुख मण्डल तेज से चमकने लगा। जिससे उन्हें पूण्डरीकाक्ष कहा गया तथा भगवान विष्णु उन्हें अपने साथ अपने वाहन गरूड़ पर बैठाकर वैकुण्ठधाम ले गए। शास्त्रों के अनुसार इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने अपने नाभि कमल से ब्रह्मा जी को उत्पन्न किया तथा संसार की उत्पति की। इस महान तीर्थ पर सिद्ध बाबा दण्डीपुरी, ग्यारहरूद्री महादेव का छोटा–सा तालाब युक्त मन्दिर, गीता भवन आदि प्रमुख हैं। इसके विषय में महाभारत के वनपर्व और वामन पुराण में भी उल्लेख है–
शुक्लपक्षे दशम्यां च पुण्डरीकं समाविशेत्।
तत्र स्नात्वा नरो राजन्पुण्डरीकफलं लभेत्।।
(महा.वनपर्व८३.८५-८६)
पौण्डरीके नरः स्नात्वा पुण्डरीकफलं लभेत् ।
दशम्यां शुक्लपक्षस्य चैत्रस्य तु विशेषतः।
स्नानंजपंतथाश्राद्धंमुक्तिमार्गप्रदायकम्।।
(वा.पु.३६.३९-४०)